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{{KKRachna
|रचनाकार=लीलाधर मंडलोई
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पानी के प्‍लांट के लिए
तीन सौ से छः सौ के बोरवेल

जहां-तहां शुरू हुआ
यह षड्यंत्र
सूख गए कुंए, पोखर, तालाब व नदियां
खेत सूख गए

धरती का पानी
बंद होने लगा बोतलों में
तिजोरियां खुलने लगीं

लोग छोड़कर अपनी जमीन
निकल गए रोजी-रोटी की तलाश में

अब बचे खुचे लोग हैं
पुरखों की जमीन को थामे
और प्रतीक्षारत

उनकी आंखें टिकी हैं
गांव के मुहाने पर

नहीं दीखती उन्‍हें
सिर पर पोटलियां थामे लौटते
लोगों की कतारें

कव्‍वों का बोलना सुनाई नहीं देता अब
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