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खाल के नीचे / अजित कुमार
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06:32, 2 अगस्त 2010
क्रूर ठंडी निगाहों,
लगातार प्रहारों से कुछ तो बच पाता !
नाख़ून !
तुम बाहर नहीं,
अंदर की ओर बढ़ो !
घोंघों की तरह
मुझे भी ढको, मुझे मढ़ो !
ओ नाख़ून !
मेरी खाल के नीचे
बिछा दो एक अनदेखी पर्त !
</poem>
अनिल जनविजय
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