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कविता को नितांत निजता से बांधकर उसे अलपताप निरर्थक प्रयोगों से इतना जटिल बन दिया गया है कि पाठक उसे पढ़कर उसमें आवेष्टित व्यर्थ प्रयोगों पर विचार करने और समग्र कविता के निहिताशय को समझ पाने की जहमत उठने से पहले वह उसे कूड़ेदान में फेंक देना श्रेयष्कर समझता है. नि:संदेह, कवियों को अपनी रचनाओं के इस हश्र को भलीभांति समझना चाहिए. हां, यह अनिवार्यत: समझना होगा; अन्यथा, समूची कविता विधा को अवर्णनीय तिरस्कार का सामना करना पड़ेगा. उसे मनुवादी या ब्राह्मणवादी होने के लांछनों से लज्जित होना पड़ेगा. लज्जित होकर साहित्य के किसी नितांत अरण्य में जाकर अपना मुंह छिपाना पड़ेगा. अपने अलोकप्रिय होने के गम में उसे कालापानी भोगना पड़ेगा जिसे खुद उसके पिता (कवि) ने दिया है.
 
कविता उपेक्षा की शिकार है. यह सर्व-मानी है. प्रकाशक कविताओं की पांडुलिपियों को छापने से तकाल इनकार करते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि कविताओं को कोई पाठक घास नहीं डालता.
चुनिन्दा साहित्य-रसिकों को छोड़कर, शत-प्रतिशत पाठक उसे नज़रंदाज़ कर देते हैं, क्योंकि वह अपना नैसर्गिक आकर्षण खो चुकी है. ऐसी बात नहीं है कि रचनाकार यह बात समझते नहीं हैं.
 
उन्हें अच्छी तरह पता है कि वे उसमें कविता-सुलभ प्राण नहीं डाल पा रहे हैं. कविता-सुलभ आवेशा नहीं डाल पा रहे हैं. वे उसे वह फीलिंग, वह इमोशन नहीं दे पा रहे हैं जिससे पाठक खुद को जोड़कर उसे बरबस अपनाने को बैचेन हो सके.