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09:43, 3 अगस्त 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विजय कुमार पंत
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<poem>
कुनबे सूक्ष्मदर्शीय
हो गए ..
चौपाल.. चौराहों में खो गए हैं...
दाई माँ..माँ से ज़्यादा करीब है..
सबसे ज़्यादा पैसे वाला ही
गरीब है..
सम्बन्ध मुखर हो हो कर
संभोग हो गए है..
बूढ़े माँ बाप
कालजयी रोग हो गए है..
रिश्ते गौण हो रहे है..
सीमायें मिट रही हैं..
महल ध्वस्त है..
हम झोंपड़ी बचाने मैं व्यस्त हैं..
तृप्ति है कहाँ..
बेटी की इज्जत लूट रहे है
बाप और
जन्मदायिनी माँ..
बिखर रहे है..ताने बाने..
अपने ही घरों में लोग
कैसे अनजाने..
सोचता है... ब्रह्म है स्वयं
आज का इंसान..
और कल शायद खुद ही करके जायेगा
अपना पिंड दान..
</poem>