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धुंधलका / अशोक लव
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20:54, 3 अगस्त 2010
मित्र !
जब धुंध
जब
इतनी घिर
जाये
जाए
कि शीशे के पार कुछ दिखाई ना दे
तब -
फिर
शीशे के पार देखना
सब कुछ साफ़
-
साफ़ दिखने लगेगा
मैं तो
वहीँ
वहीं
खड़ा था
जहाँ अब दिखाई देने लगा हूँ
सिर्फ धुंध ने तुम्हे
बहका रखा था
</poem>
अनिल जनविजय
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