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08:08, 8 अगस्त 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश कौशिक
|संग्रह=चाहते तो... / रमेश कौशिक
}}
<poem>
सत्य
दिन में नहीं
रात के अंधेरे में उभरता है
निपट नंगा
दिखाई न भी दे
तब भी
उसकी उष्मा तपाती है
ठीक ऐसे ही
जैसे सुरा या सुन्दरी की
सत्य सिंह है
जो अपने नख-दन्त
किसी को उधार नहीं देता
इसलिए मुसकरा कर
टालने की कोशिश मूर्खता है
घृणा का हथियार
उसके सामने बेकार
केवल एक ही विकल्प है
साक्षात्कार
</poem>