<br>चौ०-सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥
<br>जो कछु रुचि तुम्हारे तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥नाहीं॥१॥<br>मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।॥<br>बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति बिनती प्रभु मोरी॥मोरी॥२॥
<br>सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥
<br>मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥अधीना॥३॥
<br>अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
<br>अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥रजधानी॥४॥
<br>सो०-तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि।
<br>होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥१५१॥
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<br>चौ०-इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे॥
<br>अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥सुखदाता॥१॥
<br>जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
<br>आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥माया॥२॥
<br>पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
<br>पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥भगवाना॥३॥
<br>दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
<br>समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥बासा॥४॥
<br>दो०-यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
<br>भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥१५२॥
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<br>चौ०-सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥
<br>बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥नरेसू॥१॥
<br>धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
<br>तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥रनधीरा॥२
<br>राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
<br>अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥संग्रामा॥३॥<br>भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥प्रीती ॥<br>जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥कीन्हा॥४॥
<br>दो०-जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
<br>प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥१५३॥
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<br>चौ०-नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
<br>सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥रनधीरा॥१॥
<br>सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
<br>सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥निसाना॥२॥
<br>बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
<br>जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं॥बरिआईं॥३॥
<br>सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें॥
<br>सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥महिपाला॥४॥
<br>दो०-स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
<br>अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥१५४॥
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<br>चौ०-भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
<br>सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥नारी॥१॥
<br>सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
<br>गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥सेवा॥२॥
<br>भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
<br>दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना॥पुराना॥३॥
<br>नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥
<br>बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥बनाए॥४॥
<br>दो०-जहँ लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
<br>बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥१५५॥
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<br>चौ०-हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
<br>करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥ग्यानी॥१
<br>चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
<br>बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥भयऊ॥२
<br>फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
<br>बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं॥नाहीं॥३
<br>कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
<br>घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥उठाएँ॥४॥
<br>दो०-नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
<br>चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥१५६॥
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<br>चौ०-आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
<br>तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥बाना॥१॥
<br>तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
<br>प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा॥लागा॥२॥
<br>गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
<br>अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥नरेसू॥३॥
<br>कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
<br>अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥भुलाई॥४॥
<br>दो०-खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
<br>खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥१५७॥
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<br>चौ०-फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
<br>जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥पराई॥१॥
<br>समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
<br>गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥अभिमानी॥२॥
<br>रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
<br>तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा॥चीन्हा॥३॥
<br>राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
<br>उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥नामा॥४॥
<br>दो०-भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ।
<br>मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥१५८॥
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<br>चौ०-गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
<br>आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥बानी॥१॥
<br>को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥
<br>चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥मोरें॥२॥
<br>नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
<br>फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई॥आई॥३॥
<br>हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
<br>कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥तुम्हारा॥४॥
<br>दो०- निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान।
<br>बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥१५९(क)॥
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<br>चौ०-भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
<br>नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥सराही॥१॥
<br>पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
<br>मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥बखानी॥२॥
<br>तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥
<br>बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥काजा॥३॥
<br>समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
<br>सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥हरषाना॥४॥
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<br>दो०-कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।