तीरों की तरह धंसी हुई हैं
उनकी देह पर,
उनके पांवों के नीचे गहराई में
मिथक बन चुके झरनों पर
भेड़ियों की छायाएं
अभी भी निरीह शिकार जोह रही हैं
और जैसे देख रही हैं सपने
झुण्ड में आकर प्यास-बुझाते हिरणों के,
जिन पर वे टूट पड़ेंगे
गुम्फित झाड़ियों से अट्टहास निकलकर.