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<br>छं०-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
<br>देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥१॥रही॥
<br>अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
<br>अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥१॥
<br>हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥२॥
<br>पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
<br>बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥सोपाना॥३॥
<br>गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
<br>बरन बरन बिकसे बनजाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥सुखदाता॥४॥
<br>दो०-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
<br>फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥२१२॥
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<br>चौ०-बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
<br>चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥सँवारी॥१॥
<br>धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना॥
<br>चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥सिंचाई॥२॥
<br>मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
<br>पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥गुनवंता॥३॥
<br>अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
<br>होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥रोकी॥४॥
<br>दो०-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
<br>सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥२१३॥
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<br>चौ०-सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥२१३॥<br>सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥<br>बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥काला॥१॥
<br>सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
<br>पुर बाहेर सर सरित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥महीपा॥२॥
<br>देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई॥
<br>कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥सुजाना॥३॥
<br>भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता॥
<br>बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥पाए॥४॥
<br>दो०-संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
<br>चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥२१४॥
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<br>चौ०-कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
<br>बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥अनंदे॥१॥
<br>कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
<br>तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥फुलवाई॥२॥
<br>स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
<br>उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥बैठाए॥३॥
<br>भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
<br>मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥बिसेषी॥४॥
<br>दो०-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
<br>बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥२१५॥
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<br>चौ०-कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
<br>ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥आवा॥१॥
<br>सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
<br>ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥दुराऊ॥२॥
<br>इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
<br>कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥अलीका॥३॥
<br>ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
<br>रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥पठाए॥४॥
<br>दो०-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
<br>मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥२१६॥
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<br>चौ०-मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥
<br>सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥दाता॥१॥
<br>इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
<br>सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥सनेहू॥२॥
<br>पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
<br>म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥अवनीसू॥३॥
<br>सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
<br>करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥कराई॥४॥
<br>दो०-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
<br>बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥२१७॥
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<br>चौ०-लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
<br>प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥मुसुकाहीं॥१॥
<br>राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी॥
<br>परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥पाई॥२॥
<br>नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
<br>जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥आवौं॥३॥
<br>सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
<br>धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥सुखदाता॥४॥
<br>दो०-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
<br>करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥२१८॥
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<br>चौ०-मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥
<br>बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥लोभा॥१॥
<br>पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥
<br>तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥जोरी॥२॥
<br>केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥
<br>सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥मोचन॥३॥
<br>कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
<br>चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख सोभा जनु चाँकी॥चाँकी॥४॥
<br>दो०-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
<br>नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥२१९॥
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<br>चौ०-देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
<br>धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥लागी॥१॥
<br>निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
<br>जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥अनुरागीं॥२॥
<br>कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
<br>सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥नाहीं॥३॥
<br>बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
<br>अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही॥जाही॥४॥
<br>दो०-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम ।
<br>अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥२२०॥
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