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<poem>
ये कब सोचा था हमने

उजाले दफन होंगे

अँधेरा ही बढेगा

अगर निकला भी सूरज

तो उसकी रोशनी पर

कोई बादल भी होगा।

हमारी फ़िक्र कुछ थी

मिला है और ही कुछ,

सवेरा रात जैसा

तो शामें दोपहर सी।

हम अपनी जिंदगी को

बुझी सी रोशनी को

कहाँ से ताजगी दें,

मिटायें तीरगी तो

ये मटमैले उजाले

ये सूरज, चाँद, तारे

सियासी जहन वाले

कहाँ तक साथ देंगे?

हमारे जहन में जब

गुलामी ही बसी है

तो फिर यह शोर क्यों है,

ये नारे, ये नज़ारे

ये उजले कपडों वाले

ये लहराते से परचम

ये कौमी धुन की सरगम

भला किसके लिए हैं?

सियासी ज़हन वालो

ये नाटक मत उछालो।

जरा सूरज की सोचो

अगर कुछ धूप हो तो

हम उसकी रोशनी में

गुलामी की नमी से

ठिठुरते इस बदन को

हरारत तो दिला दें।

मगर यह फ़िक्र अपनी

हमारे जहन तक है।

यहाँ होना वही है

किसी की कब चली है

उन्हीं का बोलबाला

हमारी जिंदगी क्या

हंसी क्या है खुशी क्या

पुरानी चादरों पर

कलफ फिर से चढी है।

इसी में आफियत है....

यही जम्हूरियत है.....<poem/>