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वर्षा के मेघ कटे / गोपीकृष्ण 'गोपेश'
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20:44, 16 अगस्त 2010
पेड़ों की छाँव ज़रा और हरी हो गई है,
बाग़ में बग़ीचों में और तरी हो गई है-
राहों पर मेंढक अब सदा
नःईं
नहीं
मिलते हैं
पौधों की शाखों पर काँटे तक खिलते हैं
चन्दा मुस्काता है;
अनिल जनविजय
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