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08:43, 18 अगस्त 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रविकांत अनमोल
|संग्रह=
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<poem>
दो घड़ी इस दिल को बहलाए कहां
आदमी जाए तो अब जाए कहां
सरह्दें ही सरहदें हैं हर तरफ़
क्या जगह है? मुझको ले आए कहां ?
झड़ गए पत्ते तो शाख़ें कट गई
अब दरख़्तों में हैं वो साए कहां
आम का वो पेड़ कब का कट चुका
कोयल अब गाए भी तो गाए कहां
खेल कर होली हमारे ख़ून से
पल में खो जाते हैं वो साए कहां
जिनमें कुछ इनसानियत हो, प्यार हो
अब मिलेंगे ऐसे हमसाए कहां
(हमसाए=पड़ोसी)
जिनको गाने के लिए आए थे हम
हमने अब तक गीत वो गाए कहां
</poem>
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