रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।3।।<br><br>
चौपाई-जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।<br> तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई।।खाई।।1॥<br> जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।<br> यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।।रघुनाथा।।2॥<br> सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।<br> बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी।।भारी।।3॥<br> जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।<br> जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना।।हनुमाना।।4॥<br> जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रमहारी।।श्रमहारी।।5॥<br>
दो0- हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।<br>
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।1।।<br>
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चौपाई-जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।।<br> सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।बाता।।1॥<br> आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा।।<br> राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।।सुनावौं।।2॥<br> तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।<br>कबनेहुँ कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।।हनुमाना।।3॥<br> जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।<br> सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।भयऊ।।4॥<br> जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा।।<br> सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।लीन्हा।।5॥<br> बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा।।<br> मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मै पावा।।पावा।।6॥<br>
दो0-राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।<br>
आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।2।।<br>
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निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई।।<br>