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<br>दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
<br>बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।
<br>चौ0-जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए।।
<br>भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी।। १ ।।
<br>रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई।।
<br>दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
<br>आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु।।१।।<br><br>
 चौ0-एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा।।<br>
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू।। १।।<br>
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।।<br>
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।<br>
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ।।२ ।।<br><br>
 चौ0-कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक।।<br>
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी।। १ ।। <br>
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही।।<br>
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।<br>
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार।।३।।<br><br>
 चौ0-सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी।।<br>
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू।। १ ।। <br>
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू।।<br>
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।<br>
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।४।।<br><br>
 चौ0-मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।। <br>
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए। १।।<br>
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका।।२।।<br>
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।<br>
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ।।5।।<br><br>
 चौ0-हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।।<br>
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना।। १ ।। <br>
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती।।<br>
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।<br>
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग।।6।।<br><br>
 चौ0-जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा।।<br>
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा।। १।। <br>
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा।।<br>
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।<br>
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु।।7।।<br><br>
 चौ0-प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए।।<br>
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं।। १।। <br>
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी।।<br>
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।<br>
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि।।8।।<br><br>
 चौ0-तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए।।<br>
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।। १।। <br>
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने।।<br>
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।<br>
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस।।9।।<br><br>
 चौ0-बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ।।<br>
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू।। १।। <br>
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू।।<br>
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।<br>
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद।।10।।<br><br>
 चौ0-बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना।।<br>
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं।। १।। <br>
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई।।<br>
दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।<b>
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु।।11।।<br><br>
 चौ0-सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती।।<br>
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी।।<br>
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ।।<br>
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।<br>
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।१२।।<br><br>
 चौ0-दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।।<b>
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू।।<br>
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती।।<br>
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।<br>
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु।।13।।<br><br>
 चौ0-कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई।।<br>
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू।।<b>
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।।<br>
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।।<br>
दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।<br>
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।।14।।<br><br> चौ0-प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।<br>
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।<br>
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।।<br>
दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।<br>
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ।।15।।<br><br>
 चौ0-एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी।।<br>
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा।।<br>
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई।।<br>
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि।।16।।<br><br>
चौ0-सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।।<br>
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी।।<br>
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ।।<br>
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ।।17।।<br><br>
चौ0-चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी।।<br>
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें।।<br>
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें।।<br>
दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।।<br>
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।18।।<br><br>
 चौ0-भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई।।<br>
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना।।<br>
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू।।<br>
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब।।19।।<br><br>
चौ0-कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।।<br>
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी।।<br>
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी।।<br>
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह।।20।।<br><br>
चौ0-नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई।।<br>
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही।।<br>
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी।।<br>
दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।<br>
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु।।22।।<br><br>
 चौ0-कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी।।<br>
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा।।<br>
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली।।<br>