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चायखाने की मेज / मुकेश मानस

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<poem>

यह एक बरसों पुरानी मेज है

अनेक दुर्लभ दस्तावेज़ सँभाले
जहाँ खड़ी हैं कई अलमारियाँ चुपचाप
जहाँ खौलती रहती है चाय की मशीन
और जहाँ मँडराते रहते हैं पंडिज्जी हरदम
दृश्य-अदृश्य रूप में
उसी चायख़ाने के बीचों-बीच
दिख जायेगी आपको ये मेज
आपके स्वागत को तैयार

आप पधारें इस चायख़ाने में
कितने ही दिनों या बरसों के बाद
आप इसे पायेंगे
अपने स्थान पर अडिग और मुस्तैद
बरसों से नही बदली है इसने अपनी जगह
बिल्कुल इस कालेज की इमारत की तरह

इस मेज पर न कोई छोटा होता है और न बड़ा
न होता है नया या कि पुराना
उम्र, ज्ञान और अनुभव एकाकार हो उठते हैं
इस मेज की धरातल पर
यहाँ ख़ुद ब ख़ुद चल निकलती हैं गंभीर चर्चायें
देश-दुनिया के मसलों पर
और व्यक्तिगत बातों पर
आप हो सकते हैं भावुक
यहाँ जो खुलते हैं हँसी के फ़व्वारे
तो खुलते ही चले जाते हैं

हँसी-खुशी बीतते दिनों में
कभी-कभी यूँ भी होता है
कि घिर जाती है उदासी इस मेज के चारों तरफ़
और वक्त की बेबसी कर जाती है आँखें नम

अगर थाम सकती वक्त को
तो थाम ही लेती वक्त को ये मेज
बिठा ही लेती उन्हें हाथ पकड़
जो उठकर चले जाते हैं अचानक
कि उनके साथ उठकर नही जा सकती ये मेज

वक्त की चाबी अगर सचमुच होती उसके पास
तो वक्त क्या यूँ निकल जाता
रेत की मानिंद उसके हाथों से
मगर लगातार बीतते वक्त ने
बना दिया है इसे
साधारण रूप वाली असाधारण मेज

लोग आते और जाते रहते हैं
और यह रह जाती है
चायख़ाने में अपने स्थान पर
अडिग और मुस्तैद

2006, सत्यवती कालेज के टी रूम में रखी टी टेबल के बारे में।

<poem>
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