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अपेक्षा / सुधा ओम ढींगरा

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<poem>
पूनी की तरह
गृहस्थी की तक़ली पर
सुती गई..

अपेक्षाओं का सूत
गदरा ही रहा ...

आकाँक्षाओं के
महीन सूत के लिए
ना जाने
कितनी बार और....
मेरी भावनाएँ
तक़ली पर
कती जाती रहेंगी...

मन को अटेरनी बना
इच्छायों को कस दिया...

गृहस्थी का खेस
फिर भी पूरा ना हुआ...
</poem>