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10:23, 5 सितम्बर 2010 {{KKGlobal}}
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रचनाकार=सर्वत एम जमाल
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<poem>
सिर्फ़ तन ढकने में क्यों इन्सान के
लाले पड़ जाते हैं अक्सर जान के।
भूख से जब -जब भी हारा आदमी
सो गई तहजीब चादर तान के।
देखिए आंगन की आवाजों का खेल
कितने टुकड़े हो गये दालान के।
एक हवेली भी गिरी छप्पर के साथ
हौसले देखो जरा तूफ़ान के ।
यह नमीं तो आज तक हैरान है
कैसे पक जाते हैं पौधे धान के।
बाल तक बांका न कर पाया कोई
कितने दुश्मन आए हिंदुस्तान के ।
कुछ भी कर लें आप 'सरवत शहर में
लोग कच्चे ही रहेंगे कान के ।<poem/>