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भीतर का दीया-दो / मुकेश मानस

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उजियारे की खोज में हम
कितने अंधियारों से गुजरे
उजियारे की ख़ातिर हमने
जाने कितने दीप जलाये

पर रात कहीं ना ख़त्म हुई
भोर का तारा नहीं खिला
जितना खोजा उजियारे को
उतना ही वो नहीं मिला

सारी गहन निराशाओं के
बाद ये हमने जाना
अपने भीतर एक दिया था
भूल गये थे उसे जलाना
2008

<poem>
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