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हो तो हो / गोबिन्द प्रसाद

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<poem>

अहं का सूरज
अनपहचाने दु:ख के
उतप्त पहाड़:
गल कर कब बहेगा
रौशनी का एक दरिया
फूटेगा कब
राग वह
तम की पर्तों को जो तिरा ले जाएगा
हठीली आग
कब तक दहकेगी
... होठों की सच्चाई बनकर
प्रतिमा खण्डित हो तो हो;भीतर ही भीतर
मेरा ’वह’ दरके तो दरके


<poem>
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