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अभाव के साक्षी / गोबिन्द प्रसाद

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उन की देह में
दु:खों के श्वेत पहाड़ हैं
जगह-जगह घाटियाँ हैं मजबूरियों की
मुट्ठियों में हवाएँ हैं ख़ामोशियों की
चप्पे-चप्पे पर पेड़ हैं
छायाकृपण अभाव के
जो बड़े हैं उन से भी
और ऊँचे हैं उन की
मजबूरियों की मजबूरियों से भी

कितना अजब है यह दु:ख
कितना अजब है यह अभाव
कितना अजब है यह मजबूरियों का जंगल
जो सैलानियों के लिए
कभी श्वेत पहाड़
तो कभी घाटियाँ-तलहटियाँ
तो कभी दरख़्तों का रूप धरता है
लेकिन मजबूरियों का एक और बर्फ़ीला जंगल है
जो इस देश के मज़दूरों की
आँखों से पिघल कर बहता है
दु:खों सा
मेरे देश के लोग जिसे
अंग्रेज़ों की ज़बान में ’स्नोफाल’ कहते हैं
और उन के ठहरे हुए आँसुओं में
स्केटिंग डांस करते हैं
उन के देश में
मेरे देशवासियों का यह अंग्रेज़ी डांस
कब तक चलेगा
कब तक उन की देह में
दु:खों के श्वेत पहाड़ों को रौदेंगे हम
उन की घाटियाँ कब तक सहेंगी मजबूरियों का मौसम
कब आएंगी उस देश के बासियों की
मुट्ठियों में गुनगुनाती हवाएँ
जो उन से उन की भाषा में बातें करेंगी

(शिमला यात्रा के दौरान)
<poem>
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