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शायद / गोबिन्द प्रसाद

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<poem>

शायद
वहाँ धुँधलका था
यादों की सिहरती लौ
के आर पार

हलके और थके हुए
रंगों के भीतर दर्द की गहरी चमक
उठे हुए हाथों में
छू भर लेने की ललक

वहाँ आसमान था
शायद
हथेलियों में सिमटता हुआ
उमड़ते और उड़ते हुए
अक्षरों में न्यस्त-नद्ध

शायद वहाँ
चमकती हुई आँखें थी
अँधेरे के ख़िलाफ़
एक भरपूर टिप्पणी

या
आह से उपजा हुआ आँसू
गिरने से पहले
सहस्र रूपों में ढलता
ज्योति-निर्झर-गान
शायद वहाँ
रौशनी का एक दरिया
था बरसता हुआ

शायद वहाँ
चुप्पियों से लड़ते हुए होंठ थे
शायद
उम्मीद से भरे हाथ थे
उजालों से मिलते हुए
शायद!

<poem>
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