Changes

दुपहरिया / केदारनाथ सिंह

6 bytes added, 14:01, 12 सितम्बर 2010
::धूसर धूप हुई मन पर ज्यों-
::सुधियों की चादर अनबीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की|::साँस रोक कर खड़े हो गयेगए
::लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
::चिलबिल की नंगी बाँहों में
::भरने लगा एक खोयापन,
बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की|
::थक कर ठहर गई दुपहरिया,
::रुक कर सहम गई चौबाई,
::आँखों के इस वीराने में-
::और चमकने लगी रुखाई,
प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की|
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,801
edits