::धूसर धूप हुई मन पर ज्यों-
::सुधियों की चादर अनबीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की|।::साँस रोक कर खड़े हो गयेगए
::लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
::चिलबिल की नंगी बाँहों में
::भरने लगा एक खोयापन,
बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की|।
::थक कर ठहर गई दुपहरिया,
::रुक कर सहम गई चौबाई,
::आँखों के इस वीराने में-
::और चमकने लगी रुखाई,
प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की|।
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