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रचनाकार=सर्वत एम जमाल
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<poem>
'''हमेशा आदमी की जात काटे
ये चादर पाँव काटे, हाथ काटे

नई तहज़ीब जंगल शहर दरिया
मगर हमने सभी ख़तरात काटे

गुलामी, फाकामस्ती, तंगदस्ती
किसी ने कब ये एहसासात काटे

कहाँ सूरज का रोना रो रहे हो
यहाँ तो चाँद भी बस रात काटे

कोई पेड़ों को पल-पल सींचता है
कोई उट्ठे तो एक-एक पात काटे

इसी को जिन्दगी कहते हो सर्वत
कभी खुद को कभी ज़जबात काटे'''</poem>

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