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मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं<br>
टगर के पुष्प-तारे श्वेत<br>
:::वे ध्वनियाँ!<br>
सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल<br>
सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुम्बर<br>
खूब ऊँचा एक जीना साँवला<br>
:::उसकी अँधेरी सीढ़ीयाँ...<br>
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।<br>
एक चढ़ना औ' उतरना,<br>
व छाती पर अनेकों घाव।<br>
बुरे-अच्छे-बीच का संघर्ष<br>
:::वे भी उग्रतर<br>
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर<br>
गहन किंचित सफलता,<br>
अति भव्य असफलता<br>
...अतिरेकवादी पूर्णता<br>
:::की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...<br>
ज्यामितिक संगति-गणित<br>
की दृष्टि के कृत<br>
:::भव्य नैतिक मान<br>
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...<br>
...अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना<br>
:::कब रहा आसान<br>
मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!<br><br>
और, धन-अभिभूत अन्तःकरण में से<br>
सत्य की झाईं <br>
:::निरन्तर चिलचिलाती थी।<br><br>
आत्मचेतस् किन्तु इस<br>
पहुँचा सकूँ।<br><br>
''(कविता संग्रह, "चाँद का मुँह टेढ़ा है" से)''