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|रचनाकार=शहरयार
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<poem>
दामे-उल्फ़त से छूटती ही नहीं
ज़िन्दगी तुझको भूलती ही नहीं

कितने तूफ़ाँ उठाए आँखों ने
नाव यादों की डूबती ही नहीं

तुझसे मिलने की तुझको पाने की
कोई तदबीर सूझती ही नहीं

एक मंज़िल पे रुक गई है हयात
ये ज़मीं जैसे घूमती ही नहीं

लोग सर फोड़कर भी देख चुके
ग़म की दीवार टूटती ही नहीं
</poem>