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कितने हाथों में यहां / गौतम राजरिशी
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07:09, 28 सितम्बर 2010
इक तेरे 'ना' कहने से अब कुछ बदल सकता नहीं
मैं सिपाही-सा डटा हूँ मोरचे पर, गौर कर
''{त्रैमासिक शेष, जुलाई-सितम्बर 2009}''
</poem>
Gautam rajrishi
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