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10:15, 6 अक्टूबर 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अहमद फ़राज़
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[[Category:ग़ज़ल]]
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जो रंजिशें थी जो दिल में गुबार था ना गया,
कि अब की बार गले मिल के भी गिला ना गया,
अब उस के वादा-ए-फ़र्दान को भी तरसते हैं,
कल उसकी बात पे क्यूँ ऐतबार आ ना गया,
अब उसके हिज्र में रोऐं या वस्ल में खुश हों,
वो दोस्त हो भी तो समझो कि दोस्ताना गया,
निगाहे-यार का क्या है हुई हुई ना हुई,
ये दिल का दर्द है प्यारे गया गया ना गया,
सभी को जान थी प्यारी सभी थे लब-बस्ता,
बस इक ‘फ़राज़’ था ज़ालिम से चुप रहा ना गया,
</poem>