Changes

शिला / अमरजीत कौंके

1,957 bytes added, 06:39, 10 अक्टूबर 2010
{{KKCatKavita}}
<poem>
वह जो मेरी
कविताओं की रूह थी
मेरे देखते ही देखते
एक दम शिला हो गई
बहुत स्मृतियों का पानी
छिड़का मैंने उस पर
उसे कमर से गुदगुदाया
अपनी पुरानी
कविताएँ सुनाईं
बीती ऋतुओं की हँसी याद दिलाई
लेकिन उसे कुछ याद नहीं आया
इस तरह
यादों से परे
शिला हो गई वह
 
उसके एक ओर मैं था
सूर्य के सातवें घोड़े पर सवार
किसी राजकुमार की तरह
उसे लुभाता
उसके सपनों में
उसकी अँगुली पकड़
अनोखे नभ में
उसे घुमाता
 
एक और उसका घर था
जिसमें उसकी उम्र दफ़्न पड़ी थी
उसका पति था
जिसके साथ
उसने उम्र काटी थी
बच्चे थे
जो यौवन की दहलीज़
फलाँग रहे थे
 
एक और उसके
संस्कार थे
मंगलसूत्र था
सिन्दूर था
हुस्न का टूटता हुआ गरूर था
 
समाज के बन्धन थे
हाथों में कंगन थे
जो अब उसके लिए
बेड़ियाँ बनते जा रहे थे
उसे लगता था
कि उसके सपनों की उम्र
उसके संस्कार ही खा रहे थे
 
इन सब में
इस तरह घिरी वह
कि एक दम
शिला हो गई ।
'''मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,720
edits