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09:43, 10 अक्टूबर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|संग्रह=लोग ही चुनेंगे रंग / लाल्टू
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<poem>
एक आदमी तकरीबन एक हज़ार साल पहले रहता था.
उसके सिर पर चोटी थी
बचपन की याद आते ही उसका सिर खिंचता था
और वह झटके से खुद को बचपन से बाहर निकाल लाता.
बचपन और वयस्क संसारों के बीच की खिड़की के आरपार
आते-जाते उसने अनन्त चोटें झेली थीं. चोट सहते हुए
उसने शब्दों के हार बना लिए. उसके शब्दों के हार ज़हरीले.
तकरीबन एक हज़ार साल तक रहा ज़हर का असर.
आजकल शब्दों के हार टूट रहे हैं.
बिखरे शब्दों को सुनकर कोई कहता है -
कुछ शब्द मिले हैं, शायद आपके हैं.
मैं शब्द लेते हुए कह नहीं पाता वाकई मेरे हैं शब्द
बचा हुआ लौटा है ज़हर.