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ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई / भारत भूषण
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16:51, 11 नवम्बर 2010
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ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई
बांह में है और कोई चाह में है और कोई
प्राण फिर भी अनछुए हैं
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई
हास में है और कोई, प्यास में है और कोई
</poem>
Kumar anil
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