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मैं बहुत बोलता हूं

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{{KKRachna
|रचनाकार=महमूद दरवेश
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स्त्रियों और पेड़ों के मुतल्लिक छोटी से छॊटी बातों के बारे में बहुत बोलता हूं मैं
धरती के तिलिस्म की बाबत, एक मुल्क के बारे में जहां पासपोर्ट पर मोहर नहीं लगती
मैं पूछता हूं: क्या यह सच है भले स्त्री-पुरुषो, कि मनुष्य की धरती हर किसी के लिए है
जैसा आप कहते हैं? अगर ऐसा है तो मेरी छोटी कॉटेज कहां है, और मैं कहां हूं?
एकत्रित श्रोतागण अगले तीन मिनट तक मेरा उत्साह बढ़ाते हैं,
पहचान और आज़ादी के तीन मिनट.
श्रोतागण हमारी वापसी के अधिकार को सम्मति देते हैं
सभी मुर्ग़ियों और घोड़ों की तरह, पत्थरों से बने एक सपने को.
मैं उनसे हाथ मिलाता हूं, एक एक कर के. मैं उनके सम्मुख झुकता हूं. फिर निकल पड़ता हूं अपनी यात्रा पर
एक दूसरे देश के लिए और बातें करता हूं मरीचिका और बरसात के बीच के फ़र्क़ की.
मैं पूछता हूं : क्या यह सच है भले स्त्री-पुरुषो, कि मनुष्य की धरती हर किसी के लिए है?


'''अनुवाद : अशोक पाण्डे'''
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