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इतिहास / शैलेन्द्र

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ये रोग लिए आते हैं
रोगी ही मर जाते हैं!  * * * * * * *  फिर वे हैं जो महलों में तारों से कुछ ही नीचे सुख से निज आँखें मीचें निज सपने सच्चे करते मखमली बिस्तरों पर से, टेलीफूनों के ऊपर पैतृक पूँजी के बल से, बिन मेहनत के पैसे से-- दुनिया को दोलित करते !   निज बहुत बड़ी पूँजी से, छोटी पूँजियाँ हड़प कर धीरे - धीरे समाज के अगुआ ये ही बन जाते, नेता ये ही बन जाते, शासक ये ही बन जाते!  शासन की भूख न मिटती, शोषण की भूख न मिटती,  ये भिन्न - भिन्न देशों में छल के व्यापार सजाते  पूँजी के जाल बिछाते, ये और और बढ़ जाते!  तब इन जैसा ही कोई यदि टक्कर का मिल जाता, औ' ताल ठोंक भिड़ जाता तो महायुद्ध छिड़ जाता! तब नाम धर्म का लेकर, कर्तव्य कर्म का लेकर,
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