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11:49, 23 नवम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
|संग्रह=रागविराग / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
}}
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<poem>
वर्ष का प्रथम<br>
पृथ्वी के उठे उरोज मंजु पर्वत निरुपम<br>
किसलयों बँधे,<br>
पिक भ्रमर-गुंज भर मुखर प्राण रच रहे सधे<br>
प्रणय के गान,<br>
सुन कर सहसा<br>
प्रखर से प्रखरतर हुआ तपन-यौवन सहसा<br>
ऊर्जित,भास्वर<br>
पुलकित शत शत व्याकुल कर भर<br>
चूमता रसा को बार बार चुम्बित दिनकर<br>
क्षोभ से, लोभ से ममता से,<br>
उत्कंठा से, प्रणय के नयन की समता से,<br>
सर्वस्व दान<br>
दे कर, ले कर सर्वस्व प्रिया का सुक्रत मान।<br>
दाब में ग्रीष्म,<br>
भीष्म से भीष्म बढ़ रहा ताप,<br>
प्रस्वेद कम्प,<br>
ज्यों युग उर पर और चाप--<br>
और सुख-झम्प,<br>
निश्वास सघन<br>
पृथ्वी की--बहती लू; निर्जीवन<br>
जड़-चेतन।<br><br>
यह सान्ध्य समय,<br>
प्रलय का दृश्य भरता अम्बर,<br>
पीताभ, अग्निमय, ज्यों दुर्जय,<br>
निर्धूम, निरभ्र, दिगन्त प्रसर,<br>
कर भस्मीभूत समस्त विश्व को एक शेष,<br>
उड़ रही धूल, नीचे अदृश्य हो रहा देश।<br><br>
मैं मन्द-गमन,<br>
धर्माक्त, विरक्त पार्श्व-दर्शन से खींच नयन,<br>
चल रहा नदी-तट को करता मन में विचार--<br>
'हो गया व्यर्थ जीवन,<br>
मैं रण में गया हार!<br>
सोचा न कभी--<br>
अपने भविष्य की रचना पर चल रहे सभी।'<br>
--इस तरह बहुत कुछ।<br>
आया निज इच्छित स्थल पर<br>
बैठ एकान्त देख कर<br>
मर्माहत स्वर भर!<br><br>
फिर लगा सोचने यथासूत्र--'मैं भी होता<br>
यदि राजपुत्र--मैं क्यों न सदा कलंक ढोता,<br>
ये होते--जितने विद्याधर--मेरे अनुचर,<br>
मेरे प्रसाद के लिए विनत-सिर उद्यत-कर;<br>
मैं देता कुछ, रख अधिक, किन्तु जितने पेपर,<br>
सम्मिलित कंठ से गाते मेरी कीर्ति अमर,<br>
जीवन-चरित्र<br>
लिख अग्रलेख, अथवा छापते विशाल चित्र।<br>
इतना भी नहीं, लक्षपति का भी यदि कुमार<br>
होता मैं, शिक्षा पाता अरब-समुद्र पार,<br>
देश की नीति के मेरे पिता परम पण्डित<br>
एकाधिकार रखते भी धन पर, अविचल-चित्त<br>
होते उग्रतर साम्यवादी, करते प्रचार,<br>
चुनती जनता राष्ट्रपति उन्हे ही सुनिर्धार,<br>
पैसे में दस दस राष्ट्रीय गीत रच कर उन पर<br>
कुछ लोग बेचते गा-गा गर्दभ-मर्दन-स्वर,<br>
हिन्दी-सम्मेलन भी न कभी पीछे को पग<br>
रखता कि अटल साहित्य कहीं यह हो डगमग,<br>
मैं पाता खबर तार से त्वरित समुद्र-पार,<br>
लार्ड के लाड़लों को देता दावत विहार;<br>
इस तरह खर्च केवल सहस्र षट मास-मास<br>
पूरा कर आता लौट योग्य निज पिता पास।<br>
वायुयान से, भारत पर रखता चरण-कमल,<br>
पत्रों के प्रतिनिधि-दल में मच जाती हलचल,<br>
दौड़ते सभी, कैमरा हाथ, कहते सत्वर<br>
निज अभिप्राय, मैं सभ्य मान जाता झुक कर<br>
होता फिर खड़ा इधर को मुख कर कभी उधर,<br>
बीसियों भाव की दृष्टि सतत नीचे ऊपर<br>
फिर देता दृढ़ संदेश देश को मर्मांतिक,<br>
भाषा के बिना न रहती अन्य गंध प्रांतिक, <br>
जितने रूस के भाव, मैं कह जाता अस्थिर,<br>
समझते विचक्षण ही जब वे छपते फिर-फिर,<br>
फिर पिता संग<br>
जनता की सेवा का व्रत मैं लेता अभंग;<br>
करता प्रचार<br>
मंच पर खड़ा हो, साम्यवाद इतना उदार।<br><br>
तप तप मस्तक<br>
हो गया सान्ध्य-नभ का रक्ताभ दिगन्त-फलक,<br>
खोली आँखें आतुरता से, देखा अमन्द<br>
प्रेयसी के अलक से आयी ज्यों स्निग्ध गन्ध,<br>
'आया हूँ मैं तो यहाँ अकेला, रहा बैठ' <br>
सोचा सत्वर,<br>
देखा फिर कर, घिर कर हँसती उपवन-बेला<br>
जीवन में भर<br>
यह ताप, त्रास<br>
मस्तक पर ले कर उठी अतल की अतुल साँस,<br>
ज्यों सिद्धि परम<br>
भेद कर कर्म जीवन के दुस्तर क्लेश, सुषम <br>
आयी ऊपर,<br>
जैसे पार कर क्षीर सागर<br>
अप्सरा सुघर<br>
सिक्त-तन-केश शत लहरों पर<br>
काँपती विश्व के चकित दृश्य के दर्शन-शर।<br><br>
बोला मैं--बेला नहीं ध्यान<br>
लोगों का जहाँ खिली हो बन कर वन्य गान!<br><br>
जब तार प्रखर,<br>
लघु प्याले में अतल की सुशीतलता ज्यों कर<br>
तुम करा रही हो यह सुगन्ध की सुरा पान!<br>
लाज से नम्र हो उठा, चला मैं और पास<br>
सहसा बह चली सान्ध्य बेला की सुबातास,<br>
झुक-झुक, तन-तन, फिर झूम-झूम, हँस-हँस झकोर<br>
चिर-परिचित चितवन डाल, सहज मुखड़ा मरोर,<br>
भर मुहुर्मुहर, तन-गन्ध विकल बोली बेला--<br>
'मैं देती हूँ सर्वस्व, छुओ मत, अवहेला<br>
की अपनी स्थिति की जो तुमने, अपवित्र स्पर्श<br>
हो गया तुम्हारा, रुको, दूर से करो दर्श।'<br><br>
मैं रुका वहीं<br>
वह शिखा नवल<br>
आलोक स्निग्ध भर दिखा गयी पथ जो उज्ज्वल;<br>
मैंने स्तुति की--"हे वन्य वह्नि की तन्वि-नवल,<br>
कविता में कहाँ खुले ऐसे दल दुग्ध-धवल?<br>
यह अपल स्नेह--<br>
विश्व के प्रणयि-प्रणयिनियों का<br>
हार उर गेह?--<br>
गति सहज मन्द<br>
यह कहाँ--कहाँ वामालक चुम्बित पुलक गन्ध!<br>
'केवल आपा खोया, खेला<br>
इस जीवन में',<br>
कह सिहरी तन में वन बेला!<br>
कूऊ कू--ऊ' बोली कोयल, अन्तिम सुख-स्वर,<br>
'पी कहाँ पपीहा-प्रिय मधुर विष गयी छहर,<br>
उर बढ़ा आयु<br>
पल्लव को हिला हरित बह गयी वायु,<br>
लहरों में कम्प और लेकर उत्सुक सरिता<br>
तैरी, देखती तमश्चरिता,<br>
छबि बेला की नभ की ताराएँ निरुपमिता,<br>
शत-नयन-दृष्टि<br>
विस्मय में भर कर रही विविध-आलोक-सृष्टि।<br><br>
भाव में हरा मैं, देख मन्द हँस दी बेला,<br>
बोली अस्फुट स्वर से--'यह जीवन का मेला।<br>
चमकता सुघर बाहरी वस्तुओं को लेकर,<br>
त्यों-त्यों आत्मा की निधि पावन, बनती पत्थर।<br>
बिकती जो कौड़ी-मोल<br>
यहाँ होगी कोई इस निर्जन में,<br>
खोजो, यदि हो समतोल<br>
वहाँ कोई, विश्व के नगर-धन में।<br>
है वहाँ मान,<br>
इसलिए बड़ा है एक, शेष छोटे अजान,<br>
पर ज्ञान जहाँ,<br>
देखना--बड़े-छोटे असमान समान वहाँ<br>
सब सुहृद्वर्ग<br>
उनकी आँखों की आभा से दिग्देश स्वर्ग।<br>
बोला मैं--'यही सत्य सुन्दर।<br>
नाचती वृन्त पर तुम, ऊपर<br>
होता जब उपल-प्रहार-प्रखर<br>
अपनी कविता<br>
तुम रहो एक मेरे उर में<br>
अपनी छबि में शुचि संचरिता।'<br><br>
फिर उषःकाल<br>
मैं गया टहलता हुआ; बेल की झुका डाल<br>
तोड़ता फूल कोई ब्राह्मण,<br>
'जाती हूँ मैं' बोली बेला,<br>
जीवन प्रिय के चरणों में करने को अर्पण<br>
देखती रही;<br>
निस्वन, प्रभात की वायु बही।<br>
</poem>