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03:02, 26 नवम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जहीर कुरैशी
|संग्रह=समंदर ब्याहने आया नहीं है / जहीर कुरैशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
पीर पढ़नी है तो फिर आँखों के अन्दर देखो
मेरी आँखों में समन्दर है समन्दर देखो
जो भी मिल जाता है कहते हैं उसी से बापू
मेरी बेटी के लिए तुम भी कोई वर देखो
धूप की हिरणी सहम जाती है घर के अन्दर
देखनी ही है अगर धूप तो छत पर देखो
और मत प्रश्न करो घर के विषय में मुझसे
मेरे घर आओ रहो और मेरा घर देखो
तुम समझना ही नहीं चाहते औरत का सुभाव
वो पहेली नहीं औरत को समझकर देखो
</poem>