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03:03, 26 नवम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जहीर कुरैशी
|संग्रह=समंदर ब्याहने आया नहीं है / जहीर कुरैशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
है मुझे उस आदमी के दोग़ले स्वर का पता
हर जगह जो ढूँढता फिरता है अवसर का पता
कैसे आ जाते हैं अपने आप आँसू आँख से
हाँ मुझी भी तो नहीं है अश्रु-निर्झर का पता
प्यास औरों की बुझा देती है ख़ुद प्यासी है जो
प्यासी नदिया पूछती फिरती है सागर का पता
वो तो अभिनेता है उसके भाव पढ़ना है कठिन
उसके चेहरे से न लग पाएगा अंतर का पता
कल महोत्सव वोट गिरने का है शायद इसलिए
आज पर्वत पूछने आया है कंकर का पता
कलयुगी हूँ और कलयुग में चला भी जाऊँगा
है मुझे सतयुग न द्वापर और न त्रेता का पता
</poem>