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03:04, 26 नवम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जहीर कुरैशी
|संग्रह=समंदर ब्याहने आया नहीं है / जहीर कुरैशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
भोर की अपनी जगह अपनी है दुपहर की जगह
दूसरा घर ले नहीं सकता मेरे घर की जगह
आदमी हूँ आदमी से ही मेरी तुलना करो
लोग रख देते हैं क्यों मुझको पयंबर की जगह
बोझ का पर्वत है बूढ़ा बाप बच्चों के लिए
झिड़कियाँ मिलती हैं उसको रोज़ आदर की जगह
आप कैसे थाह पा सकते हैं मेरी पीर की
मेरी आँखों में कहीं तो है समन्दर की जगह
आपने पत्नी को सारे सुख बराबर के दिए
किन्तु मिल सकती नहीं उसको बराबर की जगह
लोग जिसको नील-नभ कहते हैं, वो कुछ भी नहीं
शून्य केवल शून्य है, उस नील-अंबर की जगह