पछतावा / कस्तूरी झा 'कोकिल'

कभी काल जों गोस्सा होय रहै,
तोहेॅ रूसी जाय रहौ।
मतुर मनोॅ सेॅ भनसा करीकेॅ,
खाना खूब खिलाय रहौ।
जब-जब मोॅन ऊछीनोॅ लागै
गपशप सेॅ बहलाय रहौ।
गीत सुनाबोॅ की-की लिखलौह
सौंसेरात बिताय रहौ।
बीच-बीच में मुस्की देॅ केॅ
हमरा खूब हँसाय रहोॅ
कहाँ-कहाँ की-की देखै छै
हमरौह कही सुनाय रहौ।
जखनी याद पड़ै छै ईसब,
लखनी मोॅन पछताबै छै।
मतुर असंभव मिलना छै अब
एहै समझ नैं आबै छै।

13/10/15 पूर्वाहन 10.30

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