कोन विषादमयीक नयन जल-द्रवित आइ धरि साओन-भादव!
मेघ-व्यूहकेँ दस दिस घेरल, प्रियतम जकर रिक्त-कर बेधल।
दिवा उतरा अनुखन दर्शन-उत्सुक अश्रुमुखी पय हेरल
आशा - दिशा ग्रस्त दुर्दिनसँ चन्द्रमुखक दर्शनहुँ असम्भव
कोन विषादमयीक नयन-जल गलित आइ धरि साओन-भादव।।1।।
किंवा मेघ-व्याधसँ बेधित, दिनपति क्रौंच ज्योति-निशेषित।
सहचरीक स्वर करुण चिरन्तन विरह अनुभवेँ सुनि-मन क्लेशित
आदिकविक उर छन्द उमड़ि जल बिन्दु-बिन्दु करुणा रस उद्भव
कोन विषादमयीक नयन-जल-रचित आइ धरि साओन-भादव।।2।।