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विस्मय / दिनेश कुमार शुक्ल

निपट उचाट घाट दोपहर का
टपक चुका है यह जीवन-घट
सोया हुआ नदी का जल है
साँस रोककर थमा है समय
किधर जाय किस ओर डगर है?

राह ताकते लोग खड़े हैं
जाने किसके इन्तज़ार में,
चलती चाबुक सन्नाटे की
बार-बार, जिसके प्रहार में
खिंचती और उछरती आती
जलती लाल रक्त की रेखा
जिसे देखकर भी हम सबने
किया हुआ बिल्कुल अनदेखा,
त्वचा फट गयी है धरती की
लेकिन कोई नहीं पसीजा
क्योंकि सभी को ख़ुद की चिन्ता
अपना-अपना जिउ-जॉंगर है
कोई बचे न बचे
मगर हम बच निकलेंगे...
इसीलिए ये सन्नाटा है

फिर भी कुछ हैं भौंहें ताने
ताक रहे जो
जिनके भीतर अब भी कुछ टिमटिमा रहा है
वे सनकेंगे
एड़ी पर चुपचाप मुड़ेंगे
झन्नाटे से भरा हुआ थप्पड़ तौलेंगे
सन्नाटे का शीशा चकनाचूर दूर तक बिखर जाएगा

शीशे के बन्दीगृह से
अब उड़ती आवाज़ें आएँगी
धीरे-धीरे बात बढ़ेगी
तभी समय फिर साँस भरेगा
धूल झाड़कर
देखा-देखी एक-एक कर लोग जुटेंगे
अपने पाँव खड़े होकर
चलकर देखेंगे
कहीं दूर ही सही
दिखेगी ख़ुशियों की धूसरित पताका

इसमें देर नहीं है ज़्यादा
लेकिन कुछ तो करना होगा...
सो क्या यह तो तुम ही जानो
या जाने वह बात
अभी जो तुड़ीमुड़ी कविता जैसी
मन के कोने में पड़ी हुई है
वह निर्जियाँ उदास नब्ज़
जो आज पकड़ में नहीं आ रही
वह अव्यक्त देह औचक ही
उठ बैठेगी,
वह अपनी आवाज़ ढूँढ़कर
चुप्पी की गुमनाम गली से ले आएगी
अपनी भाषा
कथा-कहानी
गाना-रोना हॅंसना
सब कुछ नयी तरह से रचना होगा

ऐसा नहीं कि उसने अपना सब अतीत ही
भुला दिया है,
ऐसा नहीं कि उसने अपने वर्तमान को
बेच दिया है,
ऐसा नहीं कि उसने भीतर भय ही भय है,
कालातीत नहीं है फिर भी
वह केवल सामयिक नहीं है,
अपनी चौहद्दी के बाहर
देश-काल का अतिक्रमण कर
नये-नये आयामों में वह व्यक्त हो रहा
प्रकट हो रहा एक साथ ही
वह अगणित संसारों में

वह जीवन की अमरबेल है
एक लता जो अस्ति-नास्ति के पोर-पोर में
फूट रही है-
हरियाली का घटाटोप वह !

कहीं गुरूत्वाकर्षण की भट्टी के भीतर,
कहीं दुःख के कालियदह में,
स्वप्नभंग के खॅंडहरों में,
भूलभुलैया में भटके शिशुओं के हिचकी भरे रूदन में
बच्चों को ढूँढ़ती हुई माताओं के उद्विग्न वेग में देखो ! देखो !
जीवन की वह लहर अमर, वह देखो देखो !
उस गहराती
रक्तिम होती
गोधूली में
आँख गड़ा कर देखो ! देखो !
सौ करोड़ कंठों से कम्पित
सत्ता का आकाशी गुम्बद
फटने ही वाला है, देखो !

उसके फटने पर कैसा आकाश दिखेगा हमको?
तब कैसे नक्षत्र दिखेंगे
कैसा सूरज कैसी धरती
कैसी करूणा कैसी रचना
कैसे जीव-जन्तु पशु-पक्षी
जन्म-मृत्यु, औषधि, जड़-जंगम, पंच तत्त्व...
कैसे उस क्षण होंगे हम-तुम
बन्धु-बान्धव
आशा-आशंका किस रंग की?
देखो ! देखो ! क्या दिखता है...

हो सकता है इतने पर भी
नये-नये अंकुर जो फूटें
उसी तरह के भय-उत्कंठित
पीले-हरे, उदग्र, लजीले,
हो सकता है
पृथ्वी का हिय हुमस-हुमस कर
फिर भर आये
माताओं का दूध बह चले
फिर भर आये कंठ
और आँखों में उमड़े प्रेम
वही बिल्कुल जैसा अब तक
जीवन में होता आया है
उस अधबनी अजब दुनिया के बाशिन्दे हम !

जगज्जाल में फॅंसी मछलियाँ
तड़प-तड़प कर शान्त हो चलीं
लेकिन अन्तिम बार अभी वे फिर तड़पेंगी
साध रही हैं वे अपना बल,
उनके भय में भी साहस है,
तुमको अब आश्चर्य नहीं होता है लेकिन
अच्छा होता
यदि तुम अब भी
यदाकदा हो लेते विस्मित

विस्मय
साहस और ज्ञान का और प्रेम का अग्रदूत है

यह दुनिया जो अभी अधबनी-सी दिखती है-
अन्तस्तल के दर्पण पर
वह मात्र तुम्हारा एक बिम्ब है
अपूर्णता की सुन्दरता की छाया है वह !

अन्धकार में क्या तुमने मणियाँ देखी हैं ?
तक्षक ने क्या बिना छुए ही तुम्हें डसा है ?
किसी गन्ध ने क्या तुमको बेचैन किया है अक्सर ?
क्या अब भी
तुम यदा-कदा
माया-जल के पुष्कर में धॅंसकर
रक्त-श्वेत-नीलाभ कमल के
फूल तोड़कर ले आते हो ?