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विस्मृति / मनमोहन

एक दिन उसने पानी को स्पर्श करना चाहा

तब पानी नहीं था
त्वचा व्याकुल थी काँटे की तरह
उगी हुई पुकारती हुई

यही मुमक़िन था
कि वह त्वचा को स्पर्श से हमेशा के लिए
अलग कर दे

तो इस तरह स्पर्श से स्पर्श
यानी जल अलग हुआ
और उसकी जगह
ख़ाली प्यास रह गई

किसी और दिन किसी और समय
मोटे काँच के एक सन्दूक में
बनावटी पानी बरसता है
जिसे वह लालच से देखता है
लगातार

पानी की कोई स्मृति
अब उसके पास नहीं है