वेश्याओं का जन्म!
माँ के गर्भ से नहीं होता है
वो तो खाली तश्तरी से उठकर
स्वार्थ के घने अन्धकार में
हवस की दीवार पर
बिना जड़ की बेल-सी पनपती है
उसका मन
हमेशा देहलीज़ पर बैठ
हर दिन गिनता रहता है
उसके ही तन की आवाजाही को
जब वह बाज़ार के पैने
दांतों पर बैठकर
हवस के पुजारियों की आँखो में
ढूँढती है रोटी
मन उसे वहीं पर छोड़ चला आता
और दहलीज़ पर बैठकर
करता ख़ुद से
अपने अस्तित्व को लेकर अनगिनत
सवाल
आखिर क्यों
अंतड़ियों की भूख भिनभिनाती है
हमेशा मक्खियों की तरह
क्यों नहीं सो पाया बेचैन मन
एक अरसे से
घना अँधेरा क्यों जम जाता है
घर की दहलीज़ पर
मन को लगता है
आंगन के उस पार
एक घना-सा बीहड़ है शायद
और उस घने बिहड़ में से
एक खूंखार जानवर
उसके घर के अंदर दाखिल हो गया है