हमने गाए गान मही के
मन के गाए छन्द
महाकाल से वे टकराए
नहीं हुए निस्पंद
वही बने दिशि-दिशि के गायन
अंतहीन आनंद
वही बने प्रमुदित फूलों के अंगों का
मकरंद।
रचनाकाल: ३०-०७-१९६२
हमने गाए गान मही के
मन के गाए छन्द
महाकाल से वे टकराए
नहीं हुए निस्पंद
वही बने दिशि-दिशि के गायन
अंतहीन आनंद
वही बने प्रमुदित फूलों के अंगों का
मकरंद।
रचनाकाल: ३०-०७-१९६२