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वे लोग / लक्ष्मीशंकर वाजपेयी

वे लोग
डिबिया में भरकर पिसी हुई चीनी
तलाशते थे चींटियों के ठिकाने
चतों पर बिखेरते थे बाजरा के दाने
कि आकर चुगें चिड़ियाँ
वे घर के बाहर बनवाते थे
पानी की हौदी
कि आते जाते प्यासे जानवर
पी सकें पानी
भोजन प्रारंभ करने से पूर्व
वे निकालते थे गाय तथा अन्य प्राणियों का हिस्सा
सूर्यास्त के बाद, वे नहीं तोड़ने देते थे
पेड़ से एक पत्ती
कि खलल न पड़ जाए
सोये हुए पेड़ों की नींद में
वे अपनी तरफ से शुरु कर देते थे बात
अजनबी से पूछ लेते थे उसका परिचय
जरूरतमन्दों की करते थे
दिल खोल कर मदद
कोई पूछे किसी का मकान
तो खुद छोड़ कर आते थे उस मकान तक
कोई भूला भटका अनजान मुसाफिर
आ जाए रातबिरात
तो करते थे भोजन और विश्राम की व्यवस्था
संभव है, अभी भी दूरदराज किसी गाँव या कस्बे में
बचे हों उनकी प्रजाति के कुछ लोग
काश ऐसे लोगों का
बनवाया जा सकता एक म्यूजियम
ताकि आने वाली पीढ़ियों के लोग
जान सकते
कि जीने का एक अन्दाज ये भी था।