Last modified on 24 अगस्त 2020, at 00:21

वो पल / रूपम मिश्र

हमसे निःसृत होकर
एक बेहद ख़ूबसूरत पल हो सकता था !
इतना ख़ूबसूरत
कि जैसे धनक के रंग होते हैं !

इतना कोमल, स्निग्ध और तप्त
कि जैसे चिड़िया की देह का स्पर्श होता है !
यक़ीन करो, उस पल का रंग
इतना अलग हो सकता था
जैसे अलसी के फूल होते हैं
और इतना मदिर
कि हमें कम लग सकती थी
ताज़े महुआ फूल की मादकता !

एक ख़ूबसूरत पल की तुमने
निर्ममता से हत्या कर दी
वो पल जो तुमसे जन्मा था,
बस, तुम्हारे नाम से,
तुम्हारे होने के एहसास से !

जो इतना नवजात था
कि सद्यप्रसूत रुदन भी नहीं कर पाया था
वो ख़ूबसूरत पल
जिस पर, बस, एक तुम्हारा नाम लिखा था !
जो किसी ऊब या संजोग से नहीं जन्मा था
तुम्हारे साहचर्य के ताप से
स्वतः आगत हो उठा था !

ऐसा ख़ूबसूरत पल, जिसका कारण तुम थे
वो पल जो, बस, तुम्हारे लिए आरक्षित था !
जो कितने सालो से तुम्हारी प्रतीक्षा में सोया रहा
वो खूबसूरत पल, जो आदिम प्यास से दहक रहा था
जो उतना ही नैसर्गिक था, जितना हिमशिराओं से फूट कर निकली नदी !

वो ख़ूबसूरत पल
जिसे तुमने तड़प, पीड़ा, बेचैनी, दुख से भर दिया
वो ख़ूबसूरत पल
जब तुम बच्चे जितने पवित्र लगते हो मुझे !
मैं उस खूबसूरत पल में तुम्हारे संग अदृश्य हो सकती थी !

एक रात थी जो भीने संगीत से लरज़ रही थी
अचानक सिसकियों से भर गई थी !
प्रेम में प्राप्य कुछ भी नहीं
अब ये प्रशान्त आश्वस्ति मन में ठहर गई है ।