Last modified on 26 फ़रवरी 2020, at 18:02

शक्ति संतुलन / अरविन्द भारती

अभिशप्त थे जो खेत
कभी बंजर जमीं के लिए
चल रहे है हल वहाँ
बोये जा रहे है बीज
उग रही है फसलें
पंख जो कतर दिए थे
सदियों पहले
फड़फड़ाने लगे है
तूफान उठा रहे है
पिंजरे में

खूंटे से बंधे
एक ही परिधि में घूमते
पहचानने लगे है
अपना वजूद
करने लगे है बगावत
रस्सियों के बल
टूटने लगे है

परिवर्तन
विद्रोह है उनके लिए
कुचलने को जिसे
उठा लेते है वो
पारंपरिक हथियार
एक तरफ़ा युद्ध
शक्ति संतुलन तक
जारी है।