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शत बार विनय है इस अभागिनी के पुर में मत चन्द्र उगो / प्रेम नारायण 'पंकिल'


शत बार विनय है इस अभागिनी के पुर में मत चन्द्र उगो।
जा, ओ आलोक! प्रणाम तुम्हें, अब मेरे प्यारे तिमिर जगो।
हा! शरद-शिशिर-हेमंत-बसंती बीत गयीं कितनी रातें।
प्राणेश-मिलन हो गया स्वप्न की सम्पति सब बीती बातें।
विरही आँखें उनकी स्मृति में अब हैं तरणिजा-अलकनन्दा।
तम में ही दृगजल से “पंकिल” पत्रिका लिखूँगी मधु-छन्दा।
हा! एक झलक भी दो, विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलनें पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥121॥