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शब्दसन्धान / दिनेश कुमार शुक्ल

शब्दसन्धान
भाषा की धुन्ध में
घुसता हूँ, हाथ को हाथ नहीं सूझता
खुद अपना कहा हुआ तक
नहीं बूझता
मैं तो आया था यह सोच कर
कि व्यक्त करूँगा
जो कुछ देखा है सोचा है समझा है जाना है
शब्दों को लेकिन
अचानक क्या हो गया
कि छूते ही उनसे बह चलता है
रक्त
या फिर वे फट पड़ते हैं
जैसे एटमबम,
इतनी हिंसा किसने भर दी है भाषा में
आशा हमारी है मुट्ठी की बालू-सी

बहुत स्वस्थ और तन्दुरुस्त
तुम लोगों को देखता हूँ जब
भाषा के अरण्य में
बेखटक घूमते हुए, लगता है
ऐसा तो नहीं कहीं
तुम्हीं वह शिकारी हो
शब्दों का शिकार करते हुए
यह कैसी मृगया है बन्धुवर!
तुमने जो धुआँधार शब्दों की
की है बौछार
प्रजातन्त्र, जनतन्त्र, समाजवाद, सदाचार
धर्म निरपेक्षता, विश्व बाजार
चले आ रहे हैं जहर भरे बान
हज्जारों हज्जार...।