Last modified on 30 मई 2012, at 12:33

शब्द (1) / राजेन्द्र सारथी

शब्द के पीछे भी होते हैं शब्द
रक्तरंजित, अपंग, मौन
अंसुआते, कराहते, कसमसाते
अक्षर-अक्षर बिखरे हुए
जो दिखाई नहीं देते।

जिन शब्दों में हमें दिखता है उल्लास
छिपा हो सकता है उनके पीछे बागी शब्दों का क्रोध
दागी शब्दों का उच्छवास
शालीन शब्दों के रन्ध्रों में
संभव है बह रहा हो
सदियों पहले का पिघला दर्द
कभी "खास" रहे शब्द "आम" हो जाने की टीस लिए
दिख रहे हों आज हमें उच्छृंखल।

बहुत से शब्द पहले "आम" नहीं थे
"खास" लोगों के पास शब्दकोश रहता था पहरे में
आसन से फेंके गए गले-सड़े शब्द ही
सुथराकर इस्तेमाल करता था आम समाज
महल, हवेलियों
दरबार, दरबारियों
आश्रम, रंगशालाओं में और विद्व सभाओं में
हनकते और खनकते थे सजे हुए शब्द।

इतिहास पलटकर देखो
शब्द ही गूंजे हैं कोपभवनों में
शब्दों से ही द्रवित हो होकर
राजपाट छोड़ राजा बने हैं बनवासी
शब्दों के कारण ही हुआ है महाभारत
परिजनों की हत्या या लूट
या किसी भी शत्रुता के पीछे
खड़े मिलेंगे तुम्हें शब्द ही
शब्द ही करते हैं तिरष्कृत और पुरस्कृत।

बंधु,
जब-जब हो तुम्हारा अनगढ़ शब्दों से सामना
उन्हें इज्जत बख्शना
दिल की जाजम पर भले ही मत बैठाना
पर दुतकारने की गलती मत दुहराना
सीख सको तो सीखना
शब्द हमें जुड़ना सिखाते हैं।