Last modified on 31 दिसम्बर 2007, at 02:57

शम्मअ़-ए-अन्जुमन / क़तील

मैं ज़िन्दगी की हर-इक साँस को टटोल चुकी
मैं लाख बार मुहब्बत के भेद खोल चुकी
मैं अपने आपको तनहाइयों में तोल चुकी
मैं जल्वतों में2 सितारों के बोल बोल चुकी
-मगर कोई भी न माना

वफा़ के दाम3 बिछाए गए क़रीने से4
मगर किसी ने भी रोका न मुझको जीने से
किसी ने जाम चुराए हैं मेरे सीने से
किसी ने इत्र निचोड़ा मेरे पसीने से
-किसी को ग़ैर न जाना

मेरी नज़र की गिरह खुल गई तो कुछ भी न था
जो बाज़ुओं में कहीं तुल गई तो कुछ भी न था
मेरे लबों से5 शफ़फ़6 धुल गई तो कुछ भी न था
जवाँ रही, सो रही, घुल गई तो कुछ भी न था।
-कि लुट चुका था ख़ज़ाना

रही न साँस में ख़ुशबू तो भाग फूट गए
गया शबाब7 तो अपने पराए छूट गए
कोई तो छोड़ गए कोई मुझको लूट गए
महल गिरे सो गिरे, झोंपडे भी टूट गए
-रहा न कोई ठिकाना

1.महफ़िल का दीपक (सुन्दरी) 2.सबके सामने। 3.जाल। 4.सुरीति से। 5.होंठों से। 6.उषा की लाली। 7.यौवन।