बौद्ध धर्म के प्रबल प्रचारक, भिक्षुक शाणकवासी
सिद्ध पुरूष प्रतिदिन आते थे भिक्षा के पत्यासी
जिनका तेज अमित, जो भी देखता नमित होता है
कोमल मन से करूणा का बहता अस्र होता है
प्रतिदिन की ही भातिँ आज भी भिक्षा-पात्र बढाया
‘बुद्धंशरणम्‘के स्वर सुन कर श्रेष्ठिन् बाहर आया
धैर्य-विहीन, विकल मन उसने युगल चरण झट पकड़े
चौंक उठे भिक्षुक, माया से गये आज जकड़े
थे त्रिकालदर्शी, मन ही मन समझ गये यह माया
हँसे, नियति ने निश्चित क्षण पर अपना जाल बिछाया
दुखी सुगन्धों का व्यापारी पद पर लोट रहा था
संचित दुख, पद-पद्यों पर, बन अश्रु सवेग बहा था
‘‘पुत्रवान होने का जब तक वर न मुझे प्रभु! देंगें
जनम-जनम का फलित हुआ यह हर न पाप ऋषि! लेंगे
तब तक छोडूँगा न चरण मैं, प्राण निछावर होंगे
प्रभु के रहते भला और मन कितनी पीड़ा भोगे
यह प्रभूत एश्वर्य, पूवजों की यह विपुल कमाई
कहें भिक्षुवर! क्यों न मुझे यह तृणवत पड़े दिखाई
बिना पुत्र के यह समृद्धि क्या मुझे सुगति साैंपेगी
जीवन क अंतिम क्षण तक विष-शर ही तो घोंपेगी
अर्न्तयामी हैं प्रभु ! मेरी पीड़ा को पहचानें
फैली अंजलि में डालें प्रभु! करूणा के कुछ दाने‘‘
शाणकवासी ने जैसे-तैसे पद पद्य छुड़ाये
उमड़ पड़ी करूणा, भिक्षुक के युगल नयन भर आये
कहा भिक्षु ने- ‘‘नहीं मनु के पुत्रो ने तारा है
अपने कर्मो के फल से ही नर जीता-हारा है
कर्मकांडसे जितने भी है, प्रश्न चिहन् वाले हैं
ये विश्वास मनुज ने ही उपजाये हैं, पाले हैं
स्वर्ग-नर्क-तर्पण से तारेंगे यह तो बस, विभ्रक
जो आजन्म कुँआरा क्या वह प्रेत बना डोलेगा
या कि ब्रह्म बन पीपल की फुनगी पर चढ़ बोलेगा
जो नारी न बनी माँ क्या वह डायन बन डोलेगी
या कि बेर की झाड़ी में घुस, नाक दबा बोलेगी
पुत्रवान भी तो पीड़ा से भरा-भरा लगता है
जीवित दिखता है, भीतर से मरा-मरा लगता है
जब तक स्वार्थ सध रहे तब तक गुर्रा कर भी चुप है
ओ पुत्रांध! अच्छी जो न क्रूर, लोलुप हैं
ममता, दया, स्नेह की ये ध्रुवस्वामिनियाँ अच्छी हैं
ये जीवन पर्यन्त जनक-जाया के प्रति सच्ची हैं
बाँधे इन्हे वधिक के खँूटे से, चुपचाप बँधेंगी
पीछे मुड़-मुड़ कर देखेंगी, वाणी भले रुधेगी
सेवा के प्रति सहज समर्पित होती हैं कन्याएँ
पति के पद-चिहन्ो पर चलतीं, मुड़े न दायें-बायें
किन्तु, विधान तुम्हारा तो बस पुत्र! पु!!चिल्लाता
नग्न सत्य तो यह है बेटा कभी न आड़े आता
जिस दिन पिता विवश हो वल्गा उसे सौंप देता है
उस दिन से पुत्र पिता को अनदेखा करता है
रूप जाल में उलझ, भटक जाता है चौराहों पर
लड्डू-सा नाचताा, निछावर हो जाता चाहों पर
नहीं स्मृति में मातृ-दुग्ध का तनिक भान रहता है
जिधर-जिधर बहती रस-धारा उधर-उधर बहता है
धर्म भूलता, पालक के प्रति कर्म भूल जाता है
कुटिल वासना की बाहों में झूल-झूल जाता है
श्रवण कुमार नहीं इस यंग में होते निश्चत जानो
त्याग पुत्र-व्योमह, झान की आत्मा को पहचानो
कोटि-कोटि जन्मो का जब सौन्दर्य-सुफल फलता है
तभी श्रवण सा,इस युल में रे! पुत्र कहीं मिलता है
सुखी वही नर जो माया-बंधन से दूर रहा है
रहा साधना-मग्न, भक्ति-धारा में सदा बहा है
ये झूठे संबंध कि जिनसे माया-मोह बढ़ेगा
इस माया के दलदल से जबतक न मनुष्य कढे़गा
तब तक तुम-सा आकुल-व्याकुल, दूखी, अधीर रहेगा
माया के हाथो की कठपुतली बन पीर सहेगा
नहीं दुख्सें से मुक्ति मिलेगी, दुर्धर्ष अजेय, विकट से
संयमनी का पथिक, भ्रमेगा संचर-प्रतिसंचर में
प्रलय-काल तक आवागमन करेगा मातृ-उदर में
मानो मरी बात, हृदय अपना प्रभु-पद पर वारो
मेरा भिक्षुक-जीवन देखो, मेरी ओर निहारो
किन्तु, न ये उपदेश विकल को तनिक हिला भी पाये
पटक-पटक कर शीश चरण पर आँसू अमित बहाये
कई बार पद प्रक्षालित हो गये अश्रु-सीकर से
भिक्षु हो उठे दवित, मेघ करूणा के उमड़े, बरसे
स्पर्श किया मंस्तक को बोले भिक्षु-उठो,मै हारा
हों कुपालु भगवान तथागत, प्रण हो पूर्ण तुम्हारा
निश्चय एक वर्ष में होगी ़आशा पूर्ण तुम्हारी
किन्तु,वचन बदले में तुमको मुझको देना होगा
उसके हिस्से में मेरा ही चना चबेना होगा
मात्र धरोहर समझ पुत्र को तुम्हे पालना होगा
होते ही वयस्क फिर मुझको नहीं टालना होगा
ले जाऊँगा साथ से मैं भिक्षु बना कर अपना
पुत्रवान कहलाने का तव पूरा होगा सपना
निःसन्तान पुकारेगा न जगत कलंक छूटेगा
सोलह वर्षो तक तव गृह आनंद-सुधा लूटेगा
होंगे पुत्र तीनो, तीनो मंएक तपस्वी होगा‘‘
दे वरदान भिक्षु लौटे, पर मन ही मन मुस्काये
काल-चक्र कब रूका, आदि से पल आये,पल जाये
श्रेष्ठी-प्रिया,भिक्षु-वर सुन, पुलकातिरेक से झूमी
कुल-देवता कृष्ण की शत-शत बार पादुका चुमी
हुआ वृहद उत्सव, रंगो की खूब चली पिचकारी
एक नहीं रे! तीन बार गूँजेगी किलकारी